एक मां का ज्ञान कहेता है की गुरु सबसे बडा होता है,
एक समय की बात है,
विक्रम संवत के ३०० साल पुर्व की बात है, तभी मगध धनानंद के प्रभाव के तले घुटल के बल पे टीका हुआ था,
तभी महान आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य मगध को धनानंद से मुक्त कराने के लीये सच्चाई की लडाई लड रहे थे, एक समय एसा आया की धनानंद ने महान आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य, चंन्द्रगुप्त की मां मुर्रा और चंन्द्रगुप्त मौर्य तीनो को पकड लीया,
आपको ज्ञात होगा की धनानंद कीतना कृर था तो सजा भी उससे ज्यादा देता था,
और तुरंत सजा सुनाई गई सजा ये थी की चंन्द्रगुप्त अपने आचार्य को मारे और अपनी मां को छुडा के जा सकता है, चंन्द्रगुप्त सोच में पड गया की अब करुं तो क्या करुं जीससे मा और गुरु दोनो को बचाया जा सके,
तभी अचार्य बोले चंन्द्रगुप्त तुं मुझे मार दे और अपनी मां को छुडा ले क्युं की मां सबसे बडा गुरु है, मा से बडा कोई गुरु नही है ईस सृष्ठी में, मां ने गुरु के वचन सुने और मां बोली बेटा चंन्दु मुझे मार दे मुझे मार देने से अखंड भारत के सपने को भी पुरा कर सकेगा और गुरु बचे रहे तो चंन्दु हजारो पैदा हो सकेगा,
मेरे रहेने अच्छा है की तु गुरु को बचा ले और मुझे मार दे,
आचार्य और चंन्द्रगुप्त की मां के बीच ये बात चलती रही मगर गुरु ने अपनी जीद छोडी नी आखीर धनानंद ने चंन्द्रगुप्त की मां मुरा को मार दीया,
सेवा विनतभावेन, गुरोराज्ञानुं पालनम्
य: करोति बीनाव्यजम् शिशष्य प्रवरस्मृ:
गुरु ने तो मां को महान बताया मगर मां के हीसाब से गुरु से बडा कोई नही है.
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